यह सर्वविदित्त है कि, प्राचीनकाल से ही दलित
समाज की स्थिति अत्यंत दयनीय रही है। दलित समाज का जीवन अभाव, दुःख और अपमान से भरा
था। लेकिन आज आधुनिक युग में शिक्षा के प्रचार– प्रसार के कारण दलित समाज ने भी
शिक्षा को अपना मूलमंत्र बनाया। आज वे शिक्षा को बाबासाहब का वरदान मानते है। डॉ. आंबेडकर ने दलित समाज को
–"शिक्षित बनो, संगठित बनो, संघर्ष करो।" का मूलमंत्र दिया जिससे जाग्रत
होकर दलित
समाज ने शिक्षा की ओर अपने कदम बढ़ाये है। शिक्षा के कारण ही विभिन्न क्षेत्रों में
दलित समाज जाग्रत हुआ है। आज दलित समाज में शिक्षा, संस्कार, संस्कृति, रोजगार, संगठन, श्रम, व्यवसाय, सम्मान, धर्म आदि के प्रति चेतना जागी है। यही चेतना दलित चेतना है।
शिक्षा के प्रति चेतनाः– प्राचीन काल से दलितों
के साथ अन्याय–अत्याचार हुए हैं। उन्हें शिक्षा से दूर रखा गया। लेकिन आधुनिक युग
में दलितों के लिए शिक्षा के द्वार खुले लेकिन फिर भी दलित समाज को शिक्षा के लिए
संघर्ष करना पड़ा। वाल्मीकिजी के पिता शिक्षा के प्रति जाग्रत है इसलिए वे अपने
बच्चे को पढ़ाने के लिए शिक्षकों से भी संघर्ष कर लेते है। और वाल्मीकिजी से हमेशा
कहते रहे कि पढ़–लिखकर अपनी जाति सुधारो। सुशीला टाकभौरेजी बताती है जब कॉलेज जाने की
बात आई, तो पिताजी ने मना कर दिया कि
जमाना खराब है। पर लेखिका अपनी पढ़ाई के प्रति जागरूक थी उन्हें पता था, शिक्षा ही उनके जीवन को एक नई दिशा में ले जाएगी। उन्होंने पूरे
विश्वास के साथ कहा–"मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं होगा। मैं कॉलेज जाऊँगी। कॉलेज
नहीं भेजोगे तो मर जाऊँगी। खाना नहीं खाऊँगी, पानी नहीं पियूँगी, कुछ काम नहीं करूँगी, घर का सब सामान तोड़-फोड़ डालूँगी।"१
इसप्रकार उन्होंने संघर्ष करते हुये बीए की उपाधि प्राप्त की।
मोहनदासजी को पढ़ने से रोकने के
लिए निरूत्साहित करने का कार्य भी सवर्णों द्वारा होता है। जब उनके बा बारात में
गये होते है। उस समय दुकान में एक ग्राहक सवर्ण जनानी चप्पल लेकर आते है। बा के
न होने पर भी वे मोहनदासजी को सिलने को कहते है। मोहनदासजी उन्हें बताते है कि कल
उनकी परीक्षा है बा आकर कर देंगे। यह सुनकर वह व्यक्ति बोल पड़ता है–"पढ़–लिखकर
क्या तू लाट–गवन्नर बन जागा। गाँठेगा तो येई लतीरें।"२
आर्थिक अभावों के रहते हुये भी
दलित समाज ने पढ़–लिखकर दलित जीवन को नये अस्तित्व की पहचान दी है। आज दलित समाज
शिक्षा के क्षेत्र में जाग्रत हो गया है और वह उच्च शिक्षा को भी प्राप्त कर रहा
है।
संगठन के प्रति चेतनाः– आधुनिक काल में
मार्क्स के साम्यवादी विचारों के कारण
श्रमिकों क्े महत्व को पूरे विश्व ने पहचाना। श्रमिकों ने संगठन की शक्ति का परिचय
दिया। दलित समाज ने महसूस किया कि, संगठन के अभाव में हमें अन्याय, अत्याचार का शिकार बनना
पड़ता है। इसीलिये शिक्षा से आयी संगठन की जागृति से दलित समाज परिचित हुआ।
दलित समाज को संगठित रहने का
उपदेश संविधान शिल्पी से मिल चुका था अब जरूरत थी उसे मूर्त रूप देने की। तिरस्कृत के
लेखक बताते है कि, जब उनका पक्का मकान बन
रहा था तब ठाकुर नहीं चाहते थे कि,
उनका मकान
बने। इस कारण वे जाटवों को बुलाकर षड़यंत्र रचते है पर जाटव जो ठाकुरों की चाल का एकबार पहले भी शिकार हो चुके थे अब उसकी चाल में
नही फसते और लेखक के पिता के पास आकर कहते हैं कि हम है यहाँ आप मकान बनाओं देखते
है कौन मकान बनाने से रोकता है। लेखक लिखते है–"प्रभु, कल्लन, सुमरू, परसादी, लोटन और इतवारी सभी जाटव लट्ठ लेकर बनते घर के
सामने खड़े थे। उन्होंने एक स्वर में मेरे पिता का नाम लेकर आवाज लगाई। पिता साथ
में बनी कच्ची कुठरियाँ से निकलकर आये। मैं चंदू डोकर के नीम के तने का सहारा लिए खड़ा
था। लटूरी गाँव के बसीठों के साथ–साथ अपने घर के पास रूक गया था जो हमारे घर से
थोड़ी ही दूरी पर था– रोहन भैया तू बना मकान, हम देखते हैं तुझे कौन ससुरा रोकता है मकान बनाने के लिए। प्रभु ने पिता के कंधे
पर हाथ रखते हुए कहा।"३
रूपनारायण सोनकरजी जब अपनों के
साथ अन्याय होता है तो वे जल्दी से आक्रोश में आ जाते है। हरिशंकर अवस्थी जब चमार
भदइया को निर्दयता से पीटता है तब लेखक सभी दलितों का टोला इकट्ठा करते है और सबसे
कहते हैं–"मैंने कहा–आप लोग अपनी लाठी लेकर चलो। यदि आप लोगों ने भदइया भइया
को नहीं बचाया तो वह मर जाएगा" ४
समाज के प्रति चेतनाः– पहले दलित समाज गाँवों
से दूर जंगलों में रहने पर विवश था। आज दलित समाज गाँवो, शहरो में रहता है। आज
दलित समाज अपनी अंधश्रद्धाओं को छोड़कर एक प्रगतिशील, विचारवान, शिक्षित समाज के रूप में
उभरा है। दलितों की यह स्थिति सामाजिक चेतना के कारण ही संभव हुई है।
सम्मान के प्रति चेतनाः– दलित अपनी अस्मिता,
अपने स्वमान के
लिए खुद आगे आए है। दोहरा अभिशाप की लेखिका लिखती है–"आज के अनुभव से हमने
सीख लिया है कि अगर हम स्वाभिमान से अपनी उन्नति करना चाहते है, तब हमें अपने पाँव पर खड़ा होकर
अपने पर भरोसा रखकर आगे बढ़ना होगा।"५
भारतीय समाज को जाग्रत करने के
लिए सुशीला टाकभौरेजी सुंदर समाज की कामना करती है। जहाँ समाज में प्रत्येक
व्यक्ति का सम्मानपूर्ण जीवन हो, वह जातिगत भेद–भाव से ऊपर हो। वे लिखती है जब उनके समाज को पूर्ण रूप
से सम्मान मिलेगा तभी उनका भी वास्तविक सम्मान होगा। वे लिखती है–"मुझे उस
दिन का इन्तजार है, जब मेरी जाति के माथे से
निम्न अछूत होने का कलंक पूर्ण रूप से मिट जायेगा। समाज का कदम–कदम पर अपमान होता है, मैं स्वयं उस अपमान का
सामना करती हूँ। जब तक मेरे समाज को सम्मान नहीं मिलता, तब तक मुझे सम्मान नही मिल सकता
है। "६
वाल्मीकिजी इस संदर्भ में लिखते
है– "'जाति' ही जहाँ
मान–सम्मान और योग्यता का आधार हो,
सामाजिक
श्रेष्ठता के लिए महत्वपूर्ण कारक हो, वहाँ यह लड़ाई एक दिन में नहीं लड़ी जा सकती है। लगातार विरोध और संघर्ष की
चेतना चाहिए जो मात्र बाहय ही नहीं,
आंतरिक
परिवर्तनगामी भी हो, जो सामाजिक बदलाव को दिशा दे।"७
श्रम–रोजगार के प्रति चेतनाः– प्राचीनकाल से ही दलित
समाज आर्थिक रूप से दुर्बल रहा है। क्योकि उसे संपत्ति संचय की मनाई थी। अर्थ के
बिना कोई भी समाज आगे नहीं आ सकता। दलित समाज का आर्थिक रूप से शोषण होता आया है। उन्हें
जमींदार अपने खेतों में बंधुआ मजदूर बनाकर रखते। धीरे–धीरे इस समाज में जागृति
आयी। मजदूरी मिलने की बात बताते हुए वाल्मीकिजी लिखते है–"हर साल फसल–कटाई को लेकर मोहल्ले में
बैठकें होतीं। सोलह पूली पर एक पूली मेहनताना लेने की कसमें खाई जातीं। लेकिन कटाई
शुरू होते ही बैठकों के तमाम फैसलें, कसमें हवा हो जातीं। इक्कीस पूली पर एक पूली मजूरी मिलती थी। एक पूली में एक
किलो से भी कम गेहुँ निकलते थे। भारी से भारी पूली में एक किलो गेहुँ नहीं निकलता
था। यानि दिनभर की मजदूरी एक किलो गेहुँ से भी कम।"८
सवर्ण समाज ने दलित समाज से
मेहनत–मजदूरी करा कर उनसे अत्यधिक श्रम करवाया और उनके श्रम का पूर्ण मूल्य भी उसे
अदा नहीं किया। इसलिए सवर्ण पीढ़ी–दर–पीढ़ी धनवान होता गया। और दलित पीढ़ी–दर–पीढ़ी
विपन्नता की खाई में गिरता रहा। लेकिन समय बदला है और दलित समाज में सभी क्षेत्रों में जाग्रति
आयी है अब वह अपने श्रम का पूर्ण मूल्य समझ चुका है।
धर्म के प्रति चेतनाः– डॉ. बी. आर. आंबेडकर के
अनुसार–"जो धर्म, एक को ज्ञानी बताकर, दूसरे को अज्ञानी रखे, वह धर्म नहीं लोगों को
बौद्धिक गुलाम बनाकर रखने वाला मंदिर रूपी जेलखाना है। जो धर्म एक के हाथ में
शस्त्र देता है और दूसरों को निःशस्त्र रहने का आदेश देता है, वह धर्म न होकर परतंत्रता की बेड़ी है। जो धर्म कुछ
लोगों को धनोपार्जन की खुली छूट देता है और दूसरे को अपने जीवीकोपार्जन के लिए दूसरों पर निर्भर
रहने का आदेश देता है, वह धर्म न होकर कुछ स्वार्थियों का धर्म है।"९
सुशीला टाकभौरे ने मनुवादी
हिन्दुधर्म से अपने जीवन में बहुत दुख सहा, मनु धर्म ने दलित समाज को कभी अपना नही
माना। इसी दर्द को प्रकट करते हुए सुशीलाजी लिखती है–"हमारे लोग ताजुद्दीन
बाबा को मानते थे। दूर–दरू से लोग बाबा की दरगाह पर चादर चढ़ाने नागपुर जाते थे।
हमारे लोगों का अपना कोई धर्म ही नहीं था। हम हिन्दू, मुस्लिम, सिख सभी धर्म के
देवी–देवता, पीर–फकीर, गुरू और महापुरूषों को मानते थे। असल में यह मात्र
अनुकरण था। हिन्दू कभी किसी दूसरे धर्म की बातों को नहीं मानते। हम मानते थे मतलब
हम हिन्दू नहीं नहीं थे। हमें अपना धर्म पता ही नहीं था। भय और भ्रम के साथ
हमें हिन्दू बना दिया गया था। हम हिन्दू धर्म मानते हुए अछूत होने के कष्टों का और
अपमान का जीवन जी रहे थे।"१०
अब दलित समाज धर्म के नाम पर
अपने आप जुल्म
सहन करने को तैयार नहीं था। समग्र दलित समाज में चेतना की नयी लहर दौड़ पड़ी। हिंदू
धर्म को त्याग मानव को सर्वोपरि स्थान देने वाले बौद्ध धर्म को दलित समाज ने
स्वीकार कर लिया। दोहरा अभिशाप की लेखिका कौशल्या बैसंत्रीजी लिखती है–"अब
अधिकांश महार बौद्ध हो गए है और उन्होंने इस अंधविश्वास और काल्पनिक देवी–देवताओं
की पूजा करना छोड़ दिया है। माता के मंदिर की जगह अब यहाँ बौद्ध मंदिर बन गया
है।"११
साहित्य के प्रति चेतनाः- साहित्य के प्रति चेतना
दलित समाज में पहले से ही रही है। कई दलित संत कवियों नें साहित्य साधना की है। आज
दलित साहित्य ने समाज में अपनी एक नयी पहचान बनायी है। आज प्रत्येक दलित
साहित्यकार दलित साहित्य की श्रीवृद्धि कर रहा है। आज दलित साहित्य की प्रत्येक विधा
दलित समाज का यथार्थवादी चेहरा उसके शोषण, पीड़ा, वेदना, अन्याय, गैरबराबरी को प्रकट करती है जिससे दलित समाज सदियों
से अभिशप्त रहा है।