" भारतीय साहित्य एवं संस्कृति:संवाद बनाम अबोलापन "


भारत एक बहुभाषा भाषी राष्ट्र हैं। यहॉ बोली जाने वाली अनेक भाषा ओं के बोलने वालों की संख्या विश्व के अनेक राष्ट्रों की जनसंख्या से अधिक हैं। हिन्दी को छोड़ दें तो भारत की अनेक प्रान्तीय भाषा ओं को बोलने वाले योरोप और अफ्रीका देषों की जनसंख्या से अधिक हैं। भारतीय भाषा ओं का साहित्य गुणवत्ता एवं प्रभाव की दृष्टि से विष्व की किसी भाषा  के समकक्ष रखा जाता हैं। यदि केवल वर्तमान भारतीय भाषा ओं के साहित्य को सूचीबद्ध किया जाय तो वह सम्पूर्ण योरोप के साहित्य से कम नहीं होगा। इसमें यदि प्राचीन साहित्य संस्कृत ,  प्राकृत ,  अपभ्रंष को सम्मिलित कर लें तो वह विष्व - साहित्य के समकक्ष सिद्ध होता हैं।  भारतीय भाषा ओं के साहित्य की इस विराटता के बावजूद उसकी अन्यतम विषेड्ढता है - एकसूत्र होकर भी अपनी आंचलिक सभ्यता और प्रादेषिक चेतना को सुरक्षित रखने की कला। इसी कला के कारण भारतीय साहित्य और प्रादेषिक भाषा ओं के प्रति उस  भाषा  के बोलने वालों के मन में गौरव की अनुभूति कराता हैं। इस अनुभूति के बावजूद भारतीय साहित्य में एक अन्तर्धारा प्रवाहित है जो यह सिद्ध करती हैं कि भाषा गत विभाजन के बावजूद भारतीय संस्कृति को एक सूत्र में जोड़े हुए हैं। भारतीय साहित्य का उद्गम एक स्त्रोत से ही हुआ हैं। इस प्रकार भारतीय साहित्य के कुछ बिन्दु ऐसे हैं,   जो भारतीय साहित्य की अनेकता में एकता को प्रतिपादित करते है -

1.            कुछ भारतीय भाषा ओं में निकटतम साम्य होने पर भी उनका स्वतन्त्र भाषिक  और साहित्यक स्वरूप विद्यमान है ,  जैसे - असमी - बॅगला ,  गुजराती - मराठी ,  हिन्दी - उर्दू ,  तमिल और अन्य द्रविड़ भाषायें।

2.            अनेक भारतीय साहित्यकार दो मिलती - जुलती भाषा ओं में समान रूप से महत्वपूर्ण हैं ,  जैसे गुरू नानक - हिन्दी पंजाबी ,  अमीर खुसरो ,  प्रेमचंद ,  इंषा अल्लाखां - उर्दू।

3.            भारतीय साहित्य में भाषिक  विभेद के बावजूद हर युग में मूल - स्वर एक रहा हैं।

4.            सभी आधुनिक भारतीय भाषा ओं के साहित्य का विकाष  लगभग एक ही साथ हुआ है और उनकी प्रवत्तियॉ भी समान हैं। केवल तमिल भाषा  का साहित्य प्राचीन है।

5.            पुरानी तमिल मूल रूप से द्रविड़ है जिसका साहित्य संस्कृत के समान्तर विकसित हुआ हैं।

6.            भारतीय भाषा ओं के प्रादेषिक स्वरूप के बावजूद मध्य देष की भाषा  हिन्दी और प्राचीनकाल में संस्कृत का साहित्य पूरे भारत में लिखा जाता रहा है। इस प्रकार राष्ट्रीय और  प्रादेषिक भाषा ओं का समन्वय सदैव से रहा है।

7.            भारतीय साहित्य की एकता के बावजूद उनकी प्रादेषिकता सुरक्षित है।

8.            प्रादेषिक भाषा ओं के साहित्य के साथ केन्द्रीय साहित्य की भाषा  मध्यदेष की भाषा  ही रही है।

          उपर्युक्त बिन्दु इस बात के संकेतक है कि भारतीय साहित्य में अनेकता के बावजूद एकता  

         विद्यमान हैं। इसका कारण  भारतीय संस्कृति हैं।

साहित्य का अस्तित्व भाषा  पर निर्भर है और भाषा  का मानव समुदाय पर। मानव - समुदाय के बिना न भाषा  का अस्तित्व है और न साहित्य का । अतः सृष्टि के विकास की वास्तविक यात्रा जिसे हम इतिहास के रूप में जानते हैं मानव समुदाय के विकास के साथ प्रारंभ होती हैं। इस इतिहास को प्रस्तुत करने का माध्यम है भाषा  और जो प्राप्त होता है ,  उसे साहित्य कहते हैं। इतिहास कभी स्थिर नहीं रहता कठिन यात्रा की भॉति इतिहास की यात्रा भी अबाध गति से प्रवाहमान है। इस प्रवाह की पं0जवाहरलाल नेहरू ने दो स्थितियॉ मानी है। वे लिखते हैं -

       इतिहास के अन्दर हम दो सिद्धान्तों को काम करते देखते हैं। एक तो सातत्य का  सिद्धान्त है और दूसरा  परिवर्तन का। ये दोनों सिद्धान्त परस्पर विरोधी से लगते हैं ,  परन्तु ये विरोध हैं नहीं। सातत्य के भीतर भी परिवर्तन का अंष है। इस प्रकार परिवर्तन भी अपने भीतर सातत्य का कुछ अंष लिए रहता है।

        भारत जैसे नाना जातियों ,  नाना भाषा ओं वाले विषाल देष में भारतीयता का स्वरूप एक दिन में नहीं बना और न इसे किसी राजा के आदेष या संविधान के निर्देष से बनाया गया। आदिम युग से इस भावना का प्रसार होता गया और धीरे - धीरे भारतीयता की भावना विकसित हुयी। यह जनभावना का ,  सांस्कृतिक विकास का परिणाम है। राज्यों के संघर्ड्ढ चलते रहे और उनकी सीमाएं घटती - बढ़ती रहीं किन्तु भारतीयता उससे मुक्त रही क्योंकि राजनीतिक सम्बन्धों के बनने बिगड़ने से सांस्कृतिक सम्बन्ध नहीं मिटते।

        जो देष,   जाति,   समूह या भाषा  किसी एक का प्रतिनिधित्व न करके विभिन्न जातियों,   समूहों और भाषाओं के जन का प्रतिनिधित्व करते हैं,   उनका एक देषीय नाम नहीं हो सकता तमिल,   कन्नड़,  बंगला ,  अग्रेजी ,  जर्मन ,  रूसी नाम एक देष ,  या जाति या भाषा  के प्रतीक हैं किन्तु संस्कृत या हिन्दी ,  पाली जैसे नाम किसी क्षेत्र ,  देष के प्रतीक नहीं हैं। इनका सम्बन्ध व्यापक है । हिन्दी कहने से व्यापक जन का बोध होता हैं किसी प्रान्त का नहीं। भारतीयता इन सबसे व्यापक शब्द  है,  जिसका सम्बन्ध ,   भाषा  ,  जाति ,  धर्म ,  क्षेत्र और यहॉ तक कि राजनीतिक व्यवस्था से भी ऊपर है। जो लोग इस भारतीयता की अवधारणा को आधुनिक युग की देन मानते है,  उन्हे भारतीयता के इस समाजषास्त्र को प्राचीन काल के ग्रंथों से खोजना है। आज जब कहा जाता हैं कि हम सबसे पहले भारतीय है। उन्हें राष्ट्र की अवधारणा को समझना चाहिए क्योंकि राष्ट्रीयता का सम्बन्ध भारतीयता से है।

       इस प्रकार आज भी हिन्दी सार्वदेषिक साहित्य की प्रतिनिधि भाषा हैं। उसके साथ मिलकर क्षेत्रिय भाषा यें विकसित हो रही हैं। जन भाषा ओं में मूलभूत एकता विद्यमान है। उसके मुख्य कारण इस प्रकार हैं -

1.            भारत एक इकाई हैं ,  जिसकी एक संस्कृति है।

2.            किसी राष्ट्र में नाना धर्मो की उपस्थिति संस्कृति के विकास का प्रतीक हैं ,  न कि विभाजन का। सम्प्रदाय संस्कृति का विभाजन नहीं करते।

3.            भारत में प्राचीन काल में समाज का विभाजन नहीं था। जो विभाजन मिलता हैं ,  वह कार्यो का विभाजन था।  जिसका उद्देष्य राष्ट्र का निर्माण था।

4.            जहॉ तक भाषा  का प्रष्न है भारत में चार परिवारों की भाषा यें मिलती हैं। डॉ0रामविलास षर्मा मे माना है कि राष्ट्र के निर्माण और विकास से भाषा  परिवारों की भिन्नता का कुछ भी सम्बन्ध नहीं हैं।

5.            सभी भारतीय भाषा ओं के साहित्य का मूल स्वर एक है। प्राचीन काल से आधुनिक काल तक भारतीय साहित्य में राष्ट्र निर्माण एवं विकास ,  समाज - सुधार एवं व्यवस्था के प्रति समान विचार मिलता हैं। भाषा  ,  क्षेत्र ,  जाति ,  धर्म से उसका कोई सम्बन्ध नहीं हैं।

               यहॉ यह उल्लेखनीय है कि साहित्य के क्षेत्र में जहॉ हम भाषा ओं का प्रष्न उठातें हैं ,  वहीं अन्य क्षेत्रों - संगीत ,  षिल्प में उसे वर्गो में बॉटा जाता। अंग्रेज इतिहासकारों और उनके अनुयायियों ने जानबूझकर आधुनिक भारत को भाषा ओं में विभाजित किया और इतिहास को बौद्धकाल ,  जैनकाल ,  मुस्लिमकाल जैसे नाम दिए। इस संन्दर्भ में डॉ0 राम विलास षर्मा का मत हैं - श् हिन्दु संगीत और मुस्लिम संगीत की जगह हिन्दुस्तानी संगीत और कर्णाटक संगीत ,  भारतीय संगीत के ये दो रूप प्रसिद्ध हैं।  हिन्दुस्तान और कर्णाटक जातीय प्रदेश हैं। जातीय शब्द  पर आपत्ति हो तो भोगोलिक इकाई मान लीजिए। संगीत में साम्प्रदायिक विभाजन नहीं हुआ।

       ऐसे में भारतीय साहित्य के निर्धाण के लिए कुछ मानक संरचनाओं का अनुषीलन करना पड़ता हैं। भारत में बहुजातीयता रही है। यहॉ नाना धर्मो ,  जातियों ,  वर्णो ,  भौगोलिक परिस्थितियों के कारण विभिन्नताएं रहीं हैं। साहित्य में उनका वर्णन मिलता है लेकिन साहित्य की अन्तर्धारा में अनेकता नहीं मिलती। अतः इन तत्वों को रेखांकित करना आवष्यक हैं,  जो भारतीय साहित्य को अन्य  राष्ट्रों के साहित्य से अलग करते हैं। भारतीय साहित्य का स्पष्ट आषय किसी भाषा  के साहित्य को भारतीय मान लेना नहीं हैं। भारतीय मानस को चित्रित करने वाला भारतीय रचनाकार साहित्य ही भारतीय साहित्य हैं। जिस प्रकार भाषा  के किसी क्षेत्र में रहने वाला ,    कोई परिधान करने वाला व्यक्ति भारतीय है वैसे ही भारत को प्रतिच्छन करने वाला साहित्य वह भारत में किसी भाषा  में लिखा जाय भारतीय साहित्य ही होगा लेकिन उसी भाषा  में किसी अन्य देष में लिखा गया भारतीय साहित्य नहीं होगा। पाकिस्तान का उर्दू साहित्य पाकिस्तानी का राष्ट्रीय साहित्य हो सकता भारत का नहीं।

       भारतीय साहित्य के दर्षन कराने में हिन्दी ने कभी इकतरफा यात्रा नहीं की ,  क्षेत्रीय स्तर की भाषा  में लिखा साहित्य ,  कला ,  सांस्कृतिक अनुष्ठान जब अनुवाद के माध्यम से हिन्दी में पहुंचता है ,  तब वह पूरे देष का साहित्य हो जाता हैं। विजय तेंड़ुलकर ,  शिवाजी सावंत ,  अमृता प्रितम ,  षरतचंन्द्र ,  रवीन्द्रनाथ टैगोर ,  यू. आर. अनंतमूर्ति ,  पद्मा सचदेव जैसे साहित्यकार अपनी - अपनी भाषा ओं तक सीमित नहीं रहे ,  वे भारतीय हो गये। दया पवार की आत्मकथा जब अछुत के रूप में हिन्दी में आयी तो तहलका मच गया। वर्ण और संघर्ष की भीतरी दास्तान इस आत्मकथा में थीं। षोषित ,  वंचित और उपेक्षित जीवन कहानी अकेले दया पवार की नहीं थीं,  वह पुरे देष की कहानी थी। इसीलिए हिन्दी में आकर वह पुस्कत भारतीय साहित्य का महत्वपुर्ण हिस्सा बनी। और हिन्दी के माध्यम से सात भारतीय भाषा ओं में उसका अनुवाद हुआ। अतः यह कहना अनुचित नहीं होगा कि हिन्दी की महानदी में आकर मिलने वाली नदियां उसमें विसर्जन नहीं होती ,  बल्कि क्षेत्रिय नदियां ,  महानदी से अपनी भाषा  के लिए ऊर्जा भी ग्रहण करती हैं,  हिन्दी वह केंन्द्र हैं ,  जहां से आदान प्रदान की आवाजाही बड़ी मात्रा में होती हैं। दया पवार ने लिखा है ,  अब तक मैं मराठी की झील में था। हिन्दी में अछुत के रूप में आकर मैं महासागर में पहुंच गया ! हिन्दी भारतीयता की परिचायक भाषा  है।  

भारत बहुभाषी देश है ,  संस्कृति लोकाचार में ऊपरी तौर पर भिन्नता दिख सकती हैं  पर भीतरी भावात्मक एकता है। ऐसे बहुभाषी  देश  में हिन्दी साहित्य ही ऐसी प्रबल सेवाहक है जो सहजता से आदान प्रदान की प्रभावी अभिव्यक्ति और समर्थ पुल है,  स्वतंत्रता की लड़ाई हिन्दी के माध्यम से लड़ी गयी। धार्मिक - यात्राओं के केंद्र में संवाद की भाषा  हिन्दी हैं। मनोरजन और बाजार में हिन्दी हैं। साहित्य कला हिन्दी बिना सर्व - सम्पर्क में अधुरे रह जाएंगे। ये सारी सांस्कृतिक गतिविधियां भारतीयता की पहचान हैं।

इस प्रकार भाषा  भेद के बावजूद भारतीय साहित्य का स्वरूप मिलता है वह एक विचार की नाना रूपों में अभिव्यक्ति प्रतीत होता हैं। यदि हम विभिन्न भाषा ओं के ग्रन्थों को पढ़ते हैं तो सहज में विष्वास नहीं होता कि ये अन्य भाषा ओं की रचनाएं हैं। बंकिम ,  शरद ,  रवीन्द्र नाथ टैगोर ,  शिवाजी सामन्त ,  प्रेमचंद ,  विमल मित्र हो या प्राचीन साहित्यकार वे मूलतः जिस कथानक को प्रस्तुत करते हैं ,  वह भारत का चित्र होता हैं। इसलिए भारतीय साहित्य को समझने के लिए सभी भारतीय भाषा ओं के सूत्रों को जोड़ने से ही उनका सर्व स्वरूप समझा जा सकता हैं। सूर के वात्सल्य वर्णन की परम्परा हिन्दी में नहीं मिलती पर अन्य भाषा ओं में विद्यमान हैं। तुलसी ने कम्व का रामायण काषी में सुनकर प्रेरणा ली थी। इससे स्पष्ट है भारतीय साहित्य में निरन्तर आदान प्रदान होता रहा है और समग्र भारतीय साहित्य को केन्द्र में रखकर अनुसंधान करने से ही किसी विचारधारा के मूल का पता लगाया जा सकता हैं।  



References / સંદર્ભ

Author Name and Details /લેખકનું નામ અને વિગત

डॉ. उपेन्द्र कुमार सिंह एस. चंदेल एसोसिएट प्रोफेसर, सी. एंड एस. एच. देसाई आर्ट्स एंड एल.के.एल. दोशी कॉमर्स कॉलेज, बालासिनोर